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गुरुवार, 17 सितंबर 2015

अन्नदाता के लिए कुछ अक्षर

काली बदरियों को सूँझी फिर से शरारत
छप्पर गरीब का रात भर आँसू बहाता रहा
रोता रहा उसका छोटा बच्चा भी
शायद भूखा होगा
हाँ शायद भूखा ही होगा
आखिर उसका पिता एक अन्नदाता जो है,
वो अन्नदाता जिसके जयकारे लगते हैं सभाओ में सब नेताओ की
वो अन्नदाता जिसकी चिंता हर सरकार को होती है
वो अन्नदाता जिसकी कहानियाँ अक्सर अख़बारों के काले अक्सर बयां करते हैं...

कितना कुछ होता है उस अन्नदाता के लिए
फिर भी उसका बच्चा रात को भूखा रोता है
शायद नेताओ के भारी वादों का बोझ उसके नाजुक कंधे उठा नहीं सकते
उठा नहीं सकते वो शायद उन नारे के बोझ
जो रैलियों में उसके पिता की महिमा में लगते हैं...

कौन दोषी है और कौन नहीं ?
चिंतन बहुत होता है गरीब के पैसे से आयोजित होने वाले संगोष्ठियों में...
प्रश्न उठते हैं, हल भी दिए जाते हैं
नीतियां भी बनती हैं ,पैकेज भी घोषित होते हैं
कागजों पर आकंडें अच्छे भी दिखाई देते हैं...

पर फिर भी ना जाने क्यों
अखबार सने होते हैं अन्नदाता के खून से
खबरे होतीं हैं उसके कर्ज के बोझ से मर जाने की
उसके रोते -बिलखते बच्चो को पीछे छोड़ जाने की...

आखिर क्यूँ ?
निरुत्तर सा हर कोई है इस छोटे से प्रश्न से..
शायद जवाब भी जानता है, पर देना नहीं चाहता
या फिर अब इस सब से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता...
आखिर अख़बारों में छपी वो आत्महत्याएं कुछ संख्या ही तो होती हैं
वो रोज होतें आत्म दाह मात्र आँकडे ही तो हैं...

छप्पर रोये उसका या रोये भूखा बच्चा
हमे क्या ? हम तो कंक्रीट के घर में महफूज और खुश बैठे हैं
अन्नदाता भूखा मरे तो मरे
हमारे घर में तो पैकिटों में आटा आ ही जाता है... 

अब वो बेफिक्र सुबहें नहीं होती, अब वो रंगीन शामें नहीं होतीं...

मार्बल बिछ गया है अब घर के चबूतरे पर
बारिश पड़ भी जाए तो मिटटी की ख्श्बू नहीं आती...
शाम होते ही बंद हो जाते हैं दरवाजे घर के
शुरू हो जाती हैं रंगा-रंग कहानियाँ टीवी पर,
अब वो बाहरी दलानो में
हुक्के गुड़गुड़ाते बुजुर्गों की बैठकें नहीं होती..

नीम भी अब कुछ तन्हा सा महसूस करता है गाँव के बीच में
सावन आते -जाते हैं,कोई बावँरी सी बाला अब  झूला नहीं डालती...
 नंगे बदन भाग जाते थे बच्चे धान के खेतो में
अभी कुछ दिन पहले की सी ही बात है
मोटा बस्ता कंधे पे टाँगे चले जाते हैं स्कूल में ,
अब बचपन में मासूमियत भरी शरारतें नहीं होतीं....

बेफिक्र जवानी में दोस्तों के साथ चाय की चुस्कियां लगती थी
कॉलिज, कैंटीन, पड़ोस के नुक्कड़ पे महफिले सजा करती थी
रोजगार की तलाश में वो याराने गैर से हो गए.
अब दोस्त कभी मिल भी जाए तो दिलो की बातें नहीं होतीं...

होते थे बड़ो से पूछके अहम फैसलें घरो के
उनकी बातें अंधेरों में रस्ते दिखा जाती थी
अब उँगलियों के खेल से मिल जाती हैं जानकारियां सभी.
बड़ो से सलाह-मशवरे की बातें नहीं होती...

दिन गुजरते जातें हैं, रातें कटती जाती हैं
अब वो बेफिक्र सुबहें नहीं होती, अब वो रंगीन शामें नहीं होतीं...

-हिमांशु राजपूत (ट्विटर : @simplyhimanshur)





दो पल मुझे सुकूँ के मिले...


रात की गुमशुम सी खामोशियों में
पलकों की दहलीज़ पे बैठे
कुछ झूठे ख्वाब नींद की राह तकते हैं...

मावस की रात के गहन तिमिर में
अंतर्मन के बिछोने पे लेटी
कुछ हसरतें चैन के लम्हों का इन्तजार करती हैं...

खिड़की से दूर कहीं जलती हुई
कोई इच्छाओ की चिता दिखाई देती है....
दिखाई देती है कुछ विदाई माँगती
मासूमियत और थोड़ी सादगी भी ...

ये मैं हूँ यहाँ या कोई उजड़ा
टूटा-फूटा घरौंदा है कोई...
सोचता हूँ तो प्रश्न और भी जटिल
आ खड़े हो जाते हैं...
प्रश्न वो जिन्हे हल करने का
ना होसला है अब मुझमे और नाही वक़्त है मेरे पास...

जिम्मेदारियों की चादर तले
कुछ आरजुओं के तकिये पे सर रखे
सोचता हूँ बस, बस किसी तरह
दो पल सुकूँ के मिले
मिले कुछ ख़्वाब झूठे ही
मिले कुछ हसरतें अधूरी ही
मिले कुछ मासूमियत वापस मेरी
काश !!! काश मिले मुझे दो पल, दो पल मुझे सुकूँ के मिले...

- हिमांशु राजपूत (ट्विटर :@simplyhimanshur)