है ये कैसा सफ़र ...कि जानता नही कि चल रहा हूँ या गुजर रहा हूँ
है ये कैसी अजब सी लगन ...कि जानता नहीं कि जल रहा हूँ या बुझ रहा हूँ
साथ चलने के लिए ज़माने के साथ
छूटें हैं पीछे कई मेरे हाथ
भीड़ हैं जहाँ की मेरे चारों ओर
ढूँढता हूँ कोई जाना -पहचाना सा
चेहरा इसमें यूँही ...
है ये कैसी उलझन ...कि जानता नहीं कि पा रहा हूँ या खुद को खो रहा हूँ
दौड़ में जिंदगी की बड़ी दूर निकल आया हूँ
कुछ था सचमुच मेरा अपना कही खो आया हूँ
पाया भी है कुछ मैंने पर
इसमें कुछ कमी सी है ...
है ये कैसी खलिश ...कि जानता नहीं कि हँस रहा हूँ या रो रहा हूँ ...
है ये कैसी अजब सी लगन ...कि जानता नहीं कि जल रहा हूँ या बुझ रहा हूँ
साथ चलने के लिए ज़माने के साथ
छूटें हैं पीछे कई मेरे हाथ
भीड़ हैं जहाँ की मेरे चारों ओर
ढूँढता हूँ कोई जाना -पहचाना सा
चेहरा इसमें यूँही ...
है ये कैसी उलझन ...कि जानता नहीं कि पा रहा हूँ या खुद को खो रहा हूँ
दौड़ में जिंदगी की बड़ी दूर निकल आया हूँ
कुछ था सचमुच मेरा अपना कही खो आया हूँ
पाया भी है कुछ मैंने पर
इसमें कुछ कमी सी है ...
है ये कैसी खलिश ...कि जानता नहीं कि हँस रहा हूँ या रो रहा हूँ ...
बहुत अच्छा लिखा है हिमांशु!
जवाब देंहटाएंthank you...
हटाएंVery nice, Himanshu!
जवाब देंहटाएंThank you sir...
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