मन परिंदा फिर उड़ चला गगन में ...
पंख खोले ,कुछ ना बोले
सपनो से मिलने फिर उड़ चला गगन में ….
ना सीमाए जाने ना बन्दिशें माने
छोड़ पीछे लघु घरोंदें, उड़ चला गगन में …
कुछ रिश्तें जो बांधें थे उड़ान को
अनवरस हि उठे उफान को
तोड़ मोह बंधन मिथ्या, उड़ चला गगन में…
ना हार अब कोई ना जीत कोई
छोड़ भ्रम संसार के, उड़ चला गगन में...
ना रोके अब कोई न टोके अब कोई
अब जो उड़ा है उड़ता ही जाएगा
फेंक दूर लोभ स्वर्ण पिंजरे के उड़ चला गगन में…
सुन्दर रचना.
जवाब देंहटाएंThank you...:-)
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