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गुरुवार, 11 जून 2015

तुम जा रही थी

शाम को कमरे के रोशनदान से झाँक के देखा 
शायद तुम मेरी गली से गुजर रही थी... 
चन्दन सा महक रहा था सारा मुहल्ला, 
तुम सावन में कोकिला सी चहक रही थी....

अंधियारे के कैनवास पे तुम्हारे ख्यालों के रंगों से 
मैंने तुम्हारा एक चित्र उकेर दिया... 
देखता हूँ चुपके से एक टक तुम्हे ,
तुम नजरें झुका के धीमे से मुस्कुरा रही  थी ....

शब्दों की निर्झर धारा बही, मैं खुद को भीगो बैठा
लिख दिया तुम्हे पुरानी नोटबुक के आखिरी पन्ने पे... 
 क्या प्यारा भरम है ये मेरे अल्हड़ से दिल का 
तुम जाते-जाते सहेली से मेरी कविता कह रही थी...


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