रविवार, 29 अप्रैल 2012
शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012
कहा था तुमने
भुला न पाओगे मेरी यादों को, कहा था तुमने
वास्ता अपनी चाहत का दिया था तुमने
ना समझ सका तुम्हारे उन एहसासों को
जिनके हर अंश पर मेरा नाम लिखा था तुमने
खोकर तुम्हे ये एहसास हुआ
जैसे खुद को ही कहीं खो बैठा हूँ मैं
ख़ामोशी जब कभी घेरेगी तुम्हे
दिल में कसक आँखों में मेरा चेहरा होगा, कहा था तुमने
दूर तुम क्या गयी मुझसे जैसे संसार मेरा कहीं खो गया
जो था मेरा मानो वो किसी और का हो गया
बहुत पछताओगे मुह मोड़ के जाते हो अभी
कुछ कहना कभी चाहोगें तो कह ना पाओगे, कहा था तुमने
हुआ था बावरा दुनिया की चकाचोंध में
अब समझा प्यार बिन कहाँ कुछ रखा है दुनिया में
जिसके लिए छोड़ के जाते हो ,एक दिन जब वो ही ठुकराएगा
तो ख्याल सिर्फ मेरा आयेगा, कहा था तुमने
अब पल-पल तड़पता हूँ दिल पे बोझ लिए
अफ़सोस भी करता हूँ अपने किये पे
एक बार जो चली गयी मुड़ के
वापस ना आऊँगी, कहा था तुमने
कहाँ जाऊ,क्या करूँ, कुछ समझ नहीं आता है
हर पल तुम्हारा मुस्कुराता चेहरा सामने आता है
जब कभी मुश्किल आए, आँखें बंद करके
मेरा नाम पुकारना ,पास मुझे पाओगे ,कहा था तुमने
बुधवार, 4 अप्रैल 2012
आखिर क्यूँ
कहीं दूर किसी अमीरजादे की शादी
में बजते डी जे की आवाज में
पास में भूखे पेट रोते-चिल्लाते गरीब
के बच्चे की आवाज दब जाती है...आखिर क्यूँ
क्यूँ दिन के उजाले में किसी युवा शहीद की
बेवा की तन्हा रातों की पुकार चुप हो जाती है ...आखिर क्यूँ
क्यूँ होता है ऐसा कि
अन्नदाता जो है खुद ही भूखा तड़पता
मौत को गले लगा लेता है
जो मेहनत करता है वो ही जीता है मरते-मरते...आखिर क्यूँ
क्यूँ कोई बन बैठता है सपनो का सौदागर
और किसी को सपने देखने का हक भी नहीं मिल पता है...आखिर क्यूँ
कोई बना लेता है
सोने के बड़े-बड़े बंगलें यहाँ
कोई जिंदगी बिता देता है
एक छोटी सी छत के इंतिजार में...आखिर क्यूँ
किसी की आवाज को सुनने को दुनिया
पलकें बिछाए रहती है
किसी मजबूर की आवाज कोई एक पल को भी नहीं सुनाता...आखिर क्यूँ
कोई पल में बन बैठता है जहाँ का मालिक यहाँ
कोई अपनी ही दो गज जमीन पाने को
न्याय के घर में दम तोड़ देता है...आखिर क्यूँ
में बजते डी जे की आवाज में
पास में भूखे पेट रोते-चिल्लाते गरीब
के बच्चे की आवाज दब जाती है...आखिर क्यूँ
क्यूँ दिन के उजाले में किसी युवा शहीद की
बेवा की तन्हा रातों की पुकार चुप हो जाती है ...आखिर क्यूँ
क्यूँ होता है ऐसा कि
अन्नदाता जो है खुद ही भूखा तड़पता
मौत को गले लगा लेता है
जो मेहनत करता है वो ही जीता है मरते-मरते...आखिर क्यूँ
क्यूँ कोई बन बैठता है सपनो का सौदागर
और किसी को सपने देखने का हक भी नहीं मिल पता है...आखिर क्यूँ
कोई बना लेता है
सोने के बड़े-बड़े बंगलें यहाँ
कोई जिंदगी बिता देता है
एक छोटी सी छत के इंतिजार में...आखिर क्यूँ
किसी की आवाज को सुनने को दुनिया
पलकें बिछाए रहती है
किसी मजबूर की आवाज कोई एक पल को भी नहीं सुनाता...आखिर क्यूँ
कोई पल में बन बैठता है जहाँ का मालिक यहाँ
कोई अपनी ही दो गज जमीन पाने को
न्याय के घर में दम तोड़ देता है...आखिर क्यूँ
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