काली बदरियों को सूँझी फिर से शरारत
छप्पर गरीब का रात भर आँसू बहाता रहा
रोता रहा उसका छोटा बच्चा भी
शायद भूखा होगा
हाँ शायद भूखा ही होगा
आखिर उसका पिता एक अन्नदाता जो है,
वो अन्नदाता जिसके जयकारे लगते हैं सभाओ में सब नेताओ की
वो अन्नदाता जिसकी चिंता हर सरकार को होती है
वो अन्नदाता जिसकी कहानियाँ अक्सर अख़बारों के काले अक्सर बयां करते हैं...
कितना कुछ होता है उस अन्नदाता के लिए
फिर भी उसका बच्चा रात को भूखा रोता है
शायद नेताओ के भारी वादों का बोझ उसके नाजुक कंधे उठा नहीं सकते
उठा नहीं सकते वो शायद उन नारे के बोझ
जो रैलियों में उसके पिता की महिमा में लगते हैं...
कौन दोषी है और कौन नहीं ?
चिंतन बहुत होता है गरीब के पैसे से आयोजित होने वाले संगोष्ठियों में...
प्रश्न उठते हैं, हल भी दिए जाते हैं
नीतियां भी बनती हैं ,पैकेज भी घोषित होते हैं
कागजों पर आकंडें अच्छे भी दिखाई देते हैं...
पर फिर भी ना जाने क्यों
अखबार सने होते हैं अन्नदाता के खून से
खबरे होतीं हैं उसके कर्ज के बोझ से मर जाने की
उसके रोते -बिलखते बच्चो को पीछे छोड़ जाने की...
आखिर क्यूँ ?
निरुत्तर सा हर कोई है इस छोटे से प्रश्न से..
शायद जवाब भी जानता है, पर देना नहीं चाहता
या फिर अब इस सब से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता...
आखिर अख़बारों में छपी वो आत्महत्याएं कुछ संख्या ही तो होती हैं
वो रोज होतें आत्म दाह मात्र आँकडे ही तो हैं...
छप्पर रोये उसका या रोये भूखा बच्चा
हमे क्या ? हम तो कंक्रीट के घर में महफूज और खुश बैठे हैं
अन्नदाता भूखा मरे तो मरे
हमारे घर में तो पैकिटों में आटा आ ही जाता है...
छप्पर गरीब का रात भर आँसू बहाता रहा
रोता रहा उसका छोटा बच्चा भी
शायद भूखा होगा
हाँ शायद भूखा ही होगा
आखिर उसका पिता एक अन्नदाता जो है,
वो अन्नदाता जिसके जयकारे लगते हैं सभाओ में सब नेताओ की
वो अन्नदाता जिसकी चिंता हर सरकार को होती है
वो अन्नदाता जिसकी कहानियाँ अक्सर अख़बारों के काले अक्सर बयां करते हैं...
कितना कुछ होता है उस अन्नदाता के लिए
फिर भी उसका बच्चा रात को भूखा रोता है
शायद नेताओ के भारी वादों का बोझ उसके नाजुक कंधे उठा नहीं सकते
उठा नहीं सकते वो शायद उन नारे के बोझ
जो रैलियों में उसके पिता की महिमा में लगते हैं...
कौन दोषी है और कौन नहीं ?
चिंतन बहुत होता है गरीब के पैसे से आयोजित होने वाले संगोष्ठियों में...
प्रश्न उठते हैं, हल भी दिए जाते हैं
नीतियां भी बनती हैं ,पैकेज भी घोषित होते हैं
कागजों पर आकंडें अच्छे भी दिखाई देते हैं...
पर फिर भी ना जाने क्यों
अखबार सने होते हैं अन्नदाता के खून से
खबरे होतीं हैं उसके कर्ज के बोझ से मर जाने की
उसके रोते -बिलखते बच्चो को पीछे छोड़ जाने की...
आखिर क्यूँ ?
निरुत्तर सा हर कोई है इस छोटे से प्रश्न से..
शायद जवाब भी जानता है, पर देना नहीं चाहता
या फिर अब इस सब से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता...
आखिर अख़बारों में छपी वो आत्महत्याएं कुछ संख्या ही तो होती हैं
वो रोज होतें आत्म दाह मात्र आँकडे ही तो हैं...
छप्पर रोये उसका या रोये भूखा बच्चा
हमे क्या ? हम तो कंक्रीट के घर में महफूज और खुश बैठे हैं
अन्नदाता भूखा मरे तो मरे
हमारे घर में तो पैकिटों में आटा आ ही जाता है...
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